Lord Of Shiv Mahadev
शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं।'- भगवान राम
।।ॐ।। ओम नम: शिवाय।- 'ओम' प्रथम नाम परमात्मा का फिर 'नमन' शिव को करते हैं। 'सत्यम, शिवम और सुंदरम' जो सत्य है वह ब्रह्म है:- ब्रह्म अर्थात परमात्मा। जो शिव है वह परम शुभ और पवित्र आत्म तत्व है और जो सुंदरम है वही परम प्रकृति है। अर्थात परमात्मा, शिव और पार्वती के अलावा कुछ भी जानने योग्य नहीं है। इन्हें जानना और इन्हीं में लीन हो जाने का मार्ग है-हिंदुत्व।
शिव अनादि, आदि, मध्य और अनंत है। शिव है प्रथम और शिव ही है अंतिम। शिव है सनातन धर्म का परम कारण और कार्य। शिव है धर्म की जड़। शिव से ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। सभी जगत शिव की ही शरण में है, जो शिव के प्रति शरणागत नहीं है वह प्राणी दुख के गहरे गर्त में डूबता जाता है ऐसा पुराण कहते हैं। जाने-अनजाने शिव का अपमान करने वाले को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती है
शिव स्वयं ब्रह्म हैं: शिव यक्ष के रूप को धारण करते हैं और लंबी-लंबी खूबसूरत जिनकी जटाएं हैं, जिनके हाथ में ‘पिनाक’ धनुष है, जो सत् स्वरूप हैं अर्थात् सनातन हैं, ओमवार स्वरूप दिव्यगुणसम्पन्न उज्जवलस्वरूप होते हुए भी जो दिगम्बर हैं। जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, अर्धनग्न शरीर पर राख या भभूत मले, जटाधारी, गले में रुद्राक्ष और सर्प लपेटे, तांडव नृत्य करते हैं तथा नंदी जिनके साथ रहता है। उनकी भृकुटि के मध्य में तीसरा नेत्र है। वे सदा शांत और ध्यानमग्न रहते हैं।
कुछ विद्वान मानते हैं कि शिव पुराण अनुसार शिव के माता-पिता सदाशिव और दुर्गा है। ब्रह्म (परमेश्वर) से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। सदाशिव-दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र और महेश्वर की उत्पत्ति हुई। रुद्र का सदाशिव रूप होने के कारण वे शिव कहलाए
शिवपुराण के अनुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में कालरूपी एक स्तंभ आकर खड़ा हो गया। तब दोनों ने पूछा- 'प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।'
तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- 'पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।' सदाशिव कहते हैं- 'ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।'
शिव के कारण ही है सभी धर्मों की उत्पत्ति : शिव तो जगत के गुरु और परमेश्वर हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और धरती के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी।
सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य : भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।
शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया। शिव के शिष्यों के कारण ही दुनिया में अलग अगल धर्मों की स्थापना हुई है। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने इस संबंध में कुछ तर्क भी प्रस्तुत किए-पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इनमें बुद्ध के तीन नाम अति प्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर। इसी तरह पश्चिम की संस्कृति और धर्म को भी भगवान शिव ने स्पष्ट रूप से प्रभावित किया। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के एक शिष्य ने पश्चिम में जाकर ही शिव के धर्म की नींव रखी थी जिसका कालांतर में नाम और स्वरूप बदलता गया।
ऋग्वेद में वृषभदेव का वर्णन मिलता है, जो जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ कहलाते हैं। इन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है और शिव को भी आदिनाथ कहा गया है। माना जाता है कि शिव के बाद मूलत: उन्हीं से एक ऐसी परम्परा की शुरुआत हुई जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगम्बर और सूफी सम्प्रदाय में विभक्त हो गई। फिर भी यह शोध का विषय है। शैव, शाक्तों के धर्मग्रंथों में शिव परंपरा का उल्लेख मिलता है। भारत के चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म दुनिया की सभी आदिवासियों का धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीनकाल से शिव की पूजा होती रही है। इसके अनेक प्रमाण समय-समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। शिव के एक गण नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था। अंतत: शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है और इस भिन्नता का कारण है परम्परा और भाषा का बदलते रहना।। ॐ।।
अद्भुत वेशभुषा में सभी धर्मों के प्रतीक चिन्ह : आपने भगवान शंकर का चित्र या मूर्ति देखी होगी। शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक अर्ध चन्द्र चिह्न होता है, जो कई धर्मों का प्रतीक चिन्ह है। उनके मस्तक पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू, तो दूसरे में त्रिशूल है। उनके कंधे पर धनुष और बाण। एक समय पहले उनके हाथ में सुदर्शन चक्र भी होता था, क्योंकि उसका निर्माण ही उन्होंने किया था। शिव ने अपने मस्तक पर त्रिपुंड तिलक धारण कर रखा है।
वे कानों में कुंडल, जटा से निकलकी गंगा की धारा और संपूर्ण देह पर भस्म धारण किए हुए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। उनका विग्रह रूप शिवलिंग है। कभी आपने सोचा कि इन सब शिव प्रतीकों के पीछे का रहस्य क्या है? शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं।
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देवों के देव महादेव : ब्रह्मा और इंद्र के काल में देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे।
दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। भगावान शिव को पूजने वाले देवों के साथ असुर
दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी।
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तुरंत प्रसन्न होने वाले वरदानी शिव : शिव की महिमा का वर्णन पुराणों में मिलता है। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा को शापित कर विष्णु को वरदान दिया था। शिव ने भस्मासुर को जो वरदान दिया था उसके जाल में वे खुद ही फंस गए थे। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया था।
राक्षस हों, देवता हों या फिर कोई सामान्य इंसान, शिव ने कभी अपने भक्तों के साथ भेदभाव नहीं किया। अगर कोई सच्चे मन से उन्हें याद करता है तो वे बड़ी आसानी से उसे अपना बना लेते हैं और उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य, रावण आदि कई असुरों को उन्होंने वरदान दिया था। शिव का महत्व जितना वाममार्ग में है उतना ही दक्षिणमार्ग में भी है। शिव के बगैर मोक्ष की कामना असंभव है।
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नीलकंठ शिव : भगवान शिव के गल में विषधर सर्प विराजमान है। शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। इसे हलाहल भी कहते हैं। कालकूट बहुत ही भीषण विष था जिसके कारण धरती नष्ट हो जाती। यदि भगवान शिव वह संपूर्ण विष पूर्ण रूप से पी जाते तो क्या होता यह तो नहीं मालूम। लेकिन उस विष को पीने की क्षमता किसी में भी नहीं थी। भगवान शिव ने वह विष अपने कंठ में धारण कर लिया। कंठ में धारण करने के कारण उनका कंठ नीला पड़ गया। इसीलिए वे नीलकंठ कहलाए।
बहुत से विद्वान समुद्र मंथन की घटना को एक प्रतिकात्मक घटना मानते हैं जो कि गलत है। ऐसा मानकर वे हिन्दू धर्म की ऐतिहासिक घटनाओं को मिथक और काल्पनीक बनाना चाहते हैं। जबकि ऐसी घटना हुई थी और इसके सबूत भी हैं। कालकूट नामक एक पौधे का रस भी होता है जो अतिउग्र होता है। इसकी दवाई बनाई जाती है।
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परिवार और पत्नीं के प्रति समर्पित शिव : सभी शिव ने सती से प्रेम किया और अगले जन्म में भी उसी से प्रेम किया और उन्हीं को अपनी जीवन संगिनि माना। शिव के अपनी पत्नी के प्रति समर्पण और श्रद्धा का भाव इतना है कि इसका उदाहरण अन्य कोई दूसरा नहीं मिलता। अपने पति के अपमान को सहन नहीं करते हुए माता सती के दक्ष के यज्ञ में कूद कर जान देने के बाद शिव भी पत्नी वियोग में इतने भावुक हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट करके वे सती के शव के साथ ही धरती का भ्रमण करते रहते हैं। जब उनकी देह पूरी तरह से नष्ट हो जाती है तब वे हिमालय में जाकर समाधि लगा लेते हैं।
फिर कामदेव के नृत्य से उनकी समाधि भंग होती है तो दंड स्वरूप कामदेव को वे भस्म कर देते हैं। जब देवी और देवता उन्हें यह बताते हैं कि सती पार्वती के रूप में जन्म लेकर आपको पाने के लिए कठिन तप कर रही है तब उनका क्रोध शांत होता है। सती को पाकर वे पुन: प्रसन्न हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि शिव कितने एकनिष्ठ और अपनी पत्नीं की आत्मा से प्रेम करने वाले हैं। शिव और पार्वती दोनों का एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण का वर्णन सुनना अद्भुत है।
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अद्भुत है शिव परिवार : शिव के परिवार में अद्भुत बात है। विभिन्नताओं में एकता और विषमताओं में संतुलन यह शिव परिवार से ही सीखा जा सकता है। शिव परिवार के हर व्यक्ति के वाहन या उनसे जुड़े प्राणियों को देखें तो शेर-बकरी एक घाट पानी पीने का दृश्य साफ दिखाई देगा। शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, मगर शिवजी के तो आभूषण ही सर्प हैं। वैसे स्वभाव से मयूर और सर्प दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती स्वयं शक्ति हैं, जगदम्बा हैं जिनका वाहन शेर है। मगर शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। बेचारे बैल की सिंह के आगे औकात क्या? परंतु नहीं, इन दुश्मनियों और ऊंचे-नीचे स्तरों के बावजूद शिव का परिवार शांति के साथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्नतापूर्वक समय बिताता है।
शिव-पार्वती चौपड़ भी खेलते हैं, भांग भी घोटते हैं। गणपति माता-पिता की परिक्रमा करने को विश्व-भ्रमण समकक्ष मानते हैं। स्वभावों की विपरीतताओं, विसंगतियों और असहमतियों के बावजूद सब कुछ सुगम है, क्योंकि परिवार के मुखिया ने सारा विष तो अपने गले में थाम रखा है। विसंगतियों के बीच संतुलन का बढ़िया उदाहरण है शिव का परिवार। जिस घर में शिव परिवार को चित्र लगा होता है वहां आपस में पारिवारिक एकता, प्रेम और सामजस्यता बनी रहती है।अगले पन्ने पर आठवां कारण...
सिर काटना और जोड़ना : भगवान शिव ने गणेश का सिरकाटकर उस पर हाथी का सिर लगा दिया था। राजा दक्ष का सिर उनके गण वीरभद्र ने काट दिया था लेकिन शिव ने बाद में दक्ष को क्षमा करते हुए उनके धड़ पर बकरे का सिर लगा दिया था।
इसी तरह उन्होंने जलंधर का भी सिर काट दिया था। तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों का सिर एक ही तीर से काट दिया था। उनके सिर को काटकर वे त्रिपुरासुर कहलाए। उन्होंने एक बार ब्रह्मा द्वारा झूठ बोले जाने के कारण उनका एक सिर काट दिया था। पहले ब्रह्मा के पांच सिर थे। पंचमुखी ब्रह्मा।
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शिव के पास थे ये अस्त्र और शस्त्र : यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर
ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
शिव का धनुष पिनाक दुनिया का सबसे बड़ा और शक्तिशाली धनुष था। शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था जिसे कोई उठा नहीं सकता है। प्रभु श्रीराम ने इस धनुष को उठाकर इसे तोड़ दिया था। इसी तरह शिव का त्रिशुल भी कई शक्तियों से संपन्न था। शिव का खास अस्त्र पाशुपतास्त्र था, जिसकी शिक्षा उन्होंने परशुराम सहित अपने कई भक्तों को दी थी।
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धरती का केंद्र है कैलाश पर्वत : शिवपुराण के अनुसार, भगवान शिव कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पर्वतों में सबसे ऊंचा और श्रेष्ठ कैलाश पर्वत की महिमा का वर्णन पुराणों में मिलता है। प्राचीन काल में वहां पहुंचना हर किसी के वश की बात नहीं थी। कैलाश पर्वत और मानसरोवर को धरती का केंद्र माना जाता है। मानसरोवर वह पवित्र जगह है, जिसे शिव का धाम माना जाता है। यह हिन्दुओं के लिए प्रमुख तीर्थ स्थल है।
कैलाश पर्वत समुद्र सतह से 22068 फुट ऊंचा है तथा हिमालय से उत्तरी क्षेत्र में तिब्बत में स्थित है। चूंकि तिब्बत चीन के अधीन है अतः कैलाश चीन में आता है। मानसरोवर झील से घिरा होना कैलाश पर्वत की धार्मिक महत्ता को और अधिक बढ़ाता है। प्राचीन काल से विभिन्न धर्मों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है। इस स्थान से जुड़े विभिन्न मत और लोककथाएं केवल एक ही सत्य को प्रदर्शित करती हैं, जो है ईश्वर ही सत्य है, सत्य ही शिव है।
अंत में जानिए कुछ खासा जानकारी...
शिव गण : भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया।
इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।
शिव के द्वारपाल : कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे।
इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल। उल्लेखनीय है कि शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था।
शिव पंचायत : पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है। देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव की पंचायत में 5 देवता शामिल थे। ये 5 देवता थे:- 1. सूर्य, 2. गणपति, 3. देवी, 4. रुद्र और 5. विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
शिव पार्षद : जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।
शिव चिह्न : वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
शिव की गुफा : शिव ने एक असुर को वरदान दिया था कि तू जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। इस वरदान के कारण ही उस असुर का नाम भस्मासुर हो गया। उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म करने की सोची। भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भाग गए। उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा। भागते-भागते शिवजी एक पहाड़ी के पास रुके और फिर उन्होंने इस पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। बाद में विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई। माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है। इस गुफा में हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिव की अराधना करते हैं।
शिव का जन्म : ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म एक रहस्य है। तीनों के जन्म की कथाएं वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, लेकिन उनके जन्म की पुराण कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनके जन्म की वेदों में लिखी कथाएं कितनी सच हैं, इस पर शोधपूर्ण दृष्टि की जरूरत है। यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है। अलग-अलग पुराणों में भगवान शिव और विष्णु के जन्म के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को स्वयंभू माना गया है जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं।
शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं।
शिव के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए।
यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी। विष्णु पुराण में शिव के बाल रूप का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम ‘ब्रह्मा’ नहीं है इसलिए वह रो रहा है।
तब ब्रह्मा ने शिव का नाम ‘रुद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम दिया, पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने 8 नाम दिए और शिव 8 नामों (रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव) से जाने गए। शिव पुराण के अनुसार ये नाम पृथ्वी पर लिखे गए थे।